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लेखनी कहानी -16-Jan-2023 9)एक और कदम शिक्षा की और ( स्कूल - कॉलेज के सुनहरे दिन



शीर्षक = एक और कदम शिक्षा की और 



हाईस्कूल के साथ साथ उस स्कूल का भी सफऱ ख़त्म हो चूका था, अब समय था अगले स्कूल से अपनी शिक्षा का सफऱ शुरू करने का


एक एहम बात जो कि हम अपने पिछले संस्मरण में बताना भूल गए थे, वो ये है कि ज़ब हम कक्षा 8 में आये कक्षा 7 पास करके, उस समय एक दर्दनाक हादसा हमारी आँखों ने देखा और वो तो अपने पापा को हमेशा हमेशा के लिए खुद से दूर जाते देखना यानी की साल 2009 में ज़ब हम कक्षा 8 में आये तब ही जुलाई के महीने में हमारे पापा हमें छोड़ कर इस दुनिया से चले गए


उस हादसे ने और उनकी अचानक मौत ने हम सब को ग़मगीन कर दिया था, उस समय वही एक वाहिद शख्स थे जिनकी कमाई से हमारा सारा घर चलता था, लेकिन उनके जाने के बाद तो हमें लगा की शायद हमारा शिक्षा का सफऱ वही तक था, लेकिन हमारे बड़े भाई ने घर की कमान संभाली और अपने बड़े भाई होने का फर्ज़ निभाया, खुदा से यही दुआ है की हर किसी को मेरे भाई जैसा ही बड़ा भाई अता करे

वो समय एक बुरे समय की भांति था, जिससे निकलना नामुमकिन सा लगता था लेकिन कहते है ना हर अँधेरी रात के बाद उजाला अवश्य होता है, भले ही परेशानियां कितनी ही क्यूँ ना हो अगर यकीन खुदा पर हो तो उन परेशानियों से निजात मिलने से देर नही लगती, हम सब के सब्र और हमारे भाई के कठिन परिश्रम और हमारी अम्मी की दुआओं ने हमें उस मुश्किल घड़ी से निकाल दिया, वो दौर जिससे हम निकले थे उस पर ज़ब कभी भी समय मिलेगा एक धारावाहिक अवश्य लिखूंगा, ताकि ज़ब कभी भी जीवन में बुरा समय आये तो उसे पढ़ सकूँ और याद कर सकूँ कि ज़ब खुदा उस बुरे से समय से निकाल सकता है तो ये समय भी गुज़र जाएगा


चलिए वर्तमान में आते है, हमारी शिक्षा का सफऱ उस बुरे दौर में भी चलता रहा, उसको चलाने में हमारी सिर्फ मेहनत थी उसके अलावा जो भी खर्च था वो हमारे बड़े भाई देते हमारी छोटी बहन जिन्होंने स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया था, बड़ी बहन घर का काम देखती थी और हमारी अम्मी घर पर ही रहकर बीड़ी बनाने का काम करती थी, मुझे ये सब साँझा करते हुए कोई शर्मिंदगी महसूस नही हो रही जबकी मुझे गर्व है कि हम सब ने मिलकर उस कठिन समय को पार कर दिया था,


और इसी के साथ साथ हमने जाना की लड़कियों का पढ़ा लिखा होना कितना जरूरी है, शायद इसलिए ही हम अपनी कहानी के माध्यम से यही सन्देश देना चाहते है कि शिक्षा सबके लिए एहम है, खास कर लड़कियों के लिए अगर हमारी अम्मी भी पढ़ी लिखी होती तो उन्हें बीड़ी बनाना नही पडती, शायद वो शिक्षा कि एहमियत जानती थी इसलिए ही उन्होंने हम सब को पढ़ाने की हर सम्भव कोशिश की बिना लड़का लड़की में भेद किए, और खुदा के करम से हम भाई बहनो को भी बहुत शोक था पढ़ने लिखने का


जैसा की हमने बताया की वो स्कूल हमें छोड़ना पड़ा था, क्यूंकि वहाँ ग्यारहवीं में गणित नही थी, और हमें बारहवीं गणित से करना थी, इसलिए हमने वो स्कूल छोड़ दिया, उस स्कूल का सफर वही ख़त्म हुआ हज़ारो खूबसूरत यादों के साथ


अब हमारा अगला सफऱ शुरू हुआ, एक दुसरे स्कूल से जो की एक अर्धसरकारी स्कूल था और आज भी है, उसका अनुशासन उस स्कूल से काफ़ी अच्छा था, और वो स्कूल सिर्फ लड़को का ना होकर लड़कियों का भी था, यानी की लड़के लड़कियां एक साथ पढ़ते थे


उस स्कूल का नाम D. A. V inter college था / है। हमारे शहर में इस नाम के दो स्कूल है एक में सिर्फ लड़कियां ही पढ़ती है और दुसरे में लड़के लड़कियां दोनों पढ़ते है ( जिसकी हम बात कर रहे है )। हमारा बिलासपुर शहर जिला रामपुर की एक तहसील है, जो की अन्य तहसीलों से ज्यादा डेवलप है, जिसके चलते वहाँ दस से ज्यादा इंग्लिश मीडियम स्कूल, उसी के साथ कुछ सरकारी तो कुछ अर्धसरकारी स्कूल भी है हिंदी मीडियम और उसी के साथ एक सरकारी कॉलेज भी है जो की महात्मा ज्योतिभा फूले रुहेलखण्ड यूनिवर्सिटी बरेली के अंतर्गर आता है, इसलिए हमें अपनी स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के लिए कही दूर जाना नही पड़ा ये हमारे लिए एक अच्छी बात थी, वरना हमारे साथ पढ़ने वाले बच्चें 10- 10 किलोमीटर साइकिल चला कर पढ़ने आते थे, और दसवीं और बारहवीं के बच्चें किराये के कमरे पर रह कर पढ़ाई करते थे


जैसा की हमने बताया की वो स्कूल जहाँ हमने ग्यारहवीं में दाखिला लिया वो हमारे पिछले स्कूल की तुलना में अलग था, वहाँ का अनुशासन और अध्यापक ज्यादा सख्त थे, वो स्कूल भी काफ़ी बड़ा था, उसका खेल का मैदान हमारे पिछले स्कूल से भी बड़ा था, उस स्कूल को हम साइकिल लेकर जाते थे क्यूंकि वो काफ़ी दूरी पर था हमारे घर से, उसमे लड़के लड़कियां एक साथ पढ़ते थे, इसलिए हमें थोड़ी हिचकी किचाहट भी थी, क्यूंकि अब तक का हमारा सफऱ सिर्फ लड़को वाले स्कूल में गुज़रा था, जहाँ मार कुटाई लगने पर कोई शर्मिंदगी नही होती थी, लेकिन लड़कियों के सामने डांट खाना थोड़ा अजीब लगता है, सब कुछ अच्छा था अध्यापक भी अच्छे थे, समय पर क्लास लेने आते थे  लेकिन 


वहाँ की एक बात थोड़ी अजीब थी, क्यूंकि वो एक अर्धसरकारी स्कूल था जिसके चलते अध्यापकों को वेतन कम मिलता था जिसके चलते वो बच्चों को टूशन पढ़ाते लेकिन जो बच्चें उनसे टूशन नही पढ़ते थे उन्हें बात बात पर खड़ा कर उसने सवाल जवाब करते थे, और उन्हें दबाव पूर्वक अपनी कोचिंग का हिस्सा बना लेते थे, जो की मेरे हिसाब से बड़ा अजीब था, ये तो बच्चें की और उसके माता पिता की पसंद है की वो कहा कोचिंग लगाए और कहा नही


आखिर कार ज्यादा तर बच्चों ने कक्षा अध्यापकों से ही कोचिंग लगा ली थी क्यूंकि  वो मुहावरा तो सबने सुना ही है " जल में रहकर मगर से बेर नही रखना चाहिए "


हमने भी उन्ही से कोचिंग लगा ली थी, वैसे अच्छा पढ़ाते थे, सब अध्यापक अन्य स्कूल के छात्र भी उनके पास आते थे पढ़ने के लिए

कुछ ही दिनों में हमारे वहाँ दोस्त बन गए थे, दरअसल उसमे कुछ बच्चें ऐसे भी थे जिन्हे हम दसवीं की अंग्रेजी की कोचिंग में मिले थे,


तो उस स्कूल से भी ज्यादा तो नही लेकिन कुछ अच्छी यादें जुडी हुयी है, जिनको आपके साथ अगले संस्मरण में साँझा करूंगा ज़ब तक के लिए अलविदा



स्कूल / कॉलेज के सुनहरे दिन 

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6 Comments

Radhika

09-Mar-2023 01:39 PM

Nice

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Rajeev kumar jha

31-Jan-2023 12:30 PM

Nice

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